जम्मू-कश्मीर चुनाव – अहम सवाल, क्या सवार के बगैर दौड़ जीत सकते हैं घोड़े ?

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श्रीगनर । जम्मू-कश्मीर की राजनीतिक फिजां में इस समय एक अहम सवाल तैर रहा है कि क्या सवार के बगैर घोड़े दौड़ जीत सकते हैं। उल्लेखनीय है कि जम्मू-कश्मीर के आगामी विधानसभा चुनाव में पूर्व मुख्यमंत्रियों उमर अब्दुल्ला व महबूबा मुफ्ती ने खुद न लड़ने का निर्णय लिया है। ऐसे में प्रश्न है कि इन नेताओं की पार्टियां चुनाव में कैसे बेहतर प्रदर्शन करेंगी। पूर्व मुख्यमंत्री और नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) के उपाध्यक्ष उमर अब्दुल्ला व पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) की अध्यक्ष व पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने कहा है कि वह तब तक चुनाव नहीं लड़ेंगे जब तक कि जम्मू-कश्मीर का राज्य का दर्जा फिर से बहाल नहीं कर दिया जाता।

हालांकि नेकां और पीडीपी दोनों ने स्पष्ट कर दिया है कि उनके दल केंद्र शासित प्रदेश में आगामी विधानसभा चुनावों में भाग लेंगे और वे भाजपा के लिए मैदान खुला नहीं छोड़ेंगे, जिसने अनुच्छेद 370 को निरस्त कर दिया और राज्य को बदहाल बना दिया।

लेकिन सवाल यह है कि इन नेताओं के व्यक्तिगत रूप से चुनाव न लड़ने से क्या राज्य का दर्जा बहाल हो जाएगा।

यदि जम्मू-कश्मीर विधानसभा द्वारा पारित प्रस्तावों में संवैधानिक अधिकार था, नेशनल कान्फ्रेंस के अध्यक्ष डॉ. फारूक अब्दुल्ला के मुख्यमंत्री रहने के दौरान 26 जून, 2000 को राज्य विधानसभा द्वारा पारित स्वायत्तता प्रस्ताव को केंद्र सरकार द्वारा नजरअंदाज करने पर नेकां मात्र अफसोस जता रही है। सवाल है कि अगर उस प्रस्ताव संविधान के अनुसार पारित हुआ था, तो नेकां या उस समय की राज्य सरकार ने इसको नजरअंदाज करने पर सुप्रीम कोर्ट में गुहार क्यों नहीं लगाई।

अब दोनों पार्टियां एनसी और पीडीपी, पीपुल्स अलायंस फॉर गुप्कर डिक्लेरेशन (पीएजीडी) का हिस्सा हैं, जिसका गठन सभी समान विचारधारा वाले राजनीतिक दलों के साथ मिलकर अनुच्छेद 370, 35 ए और राज्य की दर्जा की बहाली के लिए संघर्ष करना है।

उधर, उमर अब्दुल्ला ने घोषणा कर दी कि उनकी पार्टी नेकां विधानसभा चुनावों में सभी 90 सीटों के लिए अपने उम्मीदवार उतारेगी, लेकिन डॉ फारूक अब्दुल्ला ने पीएजीडी को बचाने के लिए कहा कि यह संख्या पीएजीडी में शामिल सभी दलों के साथ बातचीत कर तय की जाएगी।

यह अजीब विडंबना है कि परस्पर प्रतिकूल धारा के दोनों दल परिस्थितियों की वजह से एक साथ आ खड़े हुए हैं। इसके पहले नेकां के नेता हमेशा आरोप लगाते रहते थे कि हैं कि केंद्रीय खुफिया एजेंसियों ने नेकां को कमजोर करने के लिए पीडीपी के गठन में भूमिका निभाई है।

2015 के विधानसभा चुनावों में भाजपा के साथ गठबंधन कर पीडीपी ने सरकार बनाई तो नेकां को अपने आरोपों को दोहराने का फिर से मौका मिल गया।

लेकिन अब एक समान उद्देश्य के लिए दोनों ने एक-दूसरे से हाथ मिला लिया है। दोनों दलों ने दावा किया है कि जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा और राज्य का दर्जा वापस दिलाने के लिए उन्होंने अपने मतभेदों को खत्म कर दिया है।

अब सवाल यह है कि विधानसभा चुनाव में दोनों दलों को पूर्ण बहुमत मिलने के बावजूद उपरोक्त दोनों लक्ष्य कैसे हासिल हो सकते हैं।

चुनावी लड़ाई से उमर और महबूबा के दूर रहने से चुनावी मैदान में शामिल इनके दलों व नेताओं को नैतिक वैधता कैसे मिलेगी।

गौरतलब है कि राज्य की संवैधानिक लड़ाई सड़कों पर नहीं लड़ी जा सकती, न ही विधानसभा चुनाव जीतकर राज्य का दावा किया जा सकता है।

यह समय उमर व महबूबा के लिए आत्मनिरीक्षण का है। उन्हें यह समझना है कि व्यक्तिगत रूप से चुनाव न लड़कर वे क्या अपने उद्देश्य को नैतिक बल प्रदान कर पाएंगे।

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